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BHARTIY SANGEET PARAMPARAON ME VADYON KE VIKAS KA MAHATWA

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Academic year: 2020

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https://doi.org/10.21922/srjhsel.v6i26.11627

Copyright © 2017, Scholarly Research Journal for Interdisciplinary Studies

भारतीय संगीत परम्पराओं में वाद्यों के ववकास का महत्व

सरसवत्स कुमार

ऄवसस्टेंट प्रोफेसर, परफोर्ममग अर्टसस, एस. डी. पी. कालेज फार वूमन, लुवधयाना

भारतीय संगीत जगत में पररवतसन कोइ नइ बात नहीं है । चाहे वह पररवतसन गायन शैली में हो, चाहे वादन शैली में या नृत्य शैली में । काल के प्रवाह के साथ साथ पररवतसन सृवि का वनयम है । भारतीय शास्त्रीय संगीत में वाद्यों की ऄगर बात करे तो समय समय पर वाद्यों में भी पररवतसन अया है । चाहे एक तंत्री वीणा हो या वत्रतंत्री या सप्त तंत्री, आन सब वाद्यों की रचना समय की अवश्यकता के ऄनुसार हुइ है । अधुवनक काल में ऄब हमारे पास नए प्रयोग करने के वलए अधुवनक तकनीक की प्रयोगशालाएं है वजससे ककसी भी वाद्य यंत्र की कृवत्रम ध्ववन ईत्पन की जा सकती है । परन्तु जो वमठास और माधुयस वाद्यों की मौवलक ध्ववन में है वह कृवत्रम ध्ववन में नहीं हो सकती । ऄत: वाद्य भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक ऄवभन्न ऄंग है वजसके वबना शास्त्रीय संगीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।

ककसी संस्कृवत का सुरवित रहना परम्परा माना जाता है । परम्परा के साथ हमारी प्राचीन ववधाएँ जुडी होती है और ईनकी मान्यतायें वचरकावलक होती हैं और वे समाज में प्रवतवित रहती हैं। परम्परा का ऄथस चचतन तथा ववश्वास करने की वववध का हस्तांतरण माना जाता है ।

प्राचीन काल से ही भारतीय संगीत में समय – समय पर ऄनेक परम्पराओ का ववकास हुअ है तथा परम्पराएँ ही संगीत के वलए मागस प्रशस्त करती रही है । वजसके अधार पर नवीन शैलीयों एवं वाद्यों का ववकास हुअ तथा भारतीय संगीत ऄपनी वववशिता बनाने में सिम रहा । अज भारतीय वाद्य संगीत परम्परा का जो रूप हमारे समुख ईपवस्थत है वह ककसी एक व्यवि की खोज या बौविक ईपज द्वारा वनर्ममत नहीं, यह तो कइ वषो की साधना से फलीभूत हुइ है । वतसमान भारतीय वाद्य संगीत परम्परा एक सुदृढ़ परम्परा को लेकर नवीन युग की ओर ऄग्रसर हो रही है ।

मानव मवस्तष्क की यह ववशेषता है कक जो ध्ववन वह ऄपने शरीर ऄथवा ककसी ऄंग से ईत्पन नहीं कर सकता वह ध्ववन वह ककसी ऄन्य माध्यम से ऄथासत ककसी यन्त्र के माध्यम से पैदा करने का प्रयास करता

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है । ऄपने मवस्तष्क की सतत गवतशीलता के कारण वह सदा ही कुछ न कुछ नवीनता को खोजता रहता है तथा प्रयोग करता रहता है । ऄत मानव की आस प्रवृवत ने भी वाद्यों की ईत्पवत और ववकास में योगदान कदया ।

सभ्यता के प्रारम्भ या ईससे भी पहले से ही मनुष्य ककसी न ककसी रूप में वाद्यों का प्रयोग करता रहा है । सभ्यता के ववकास के साथ साथ वाद्यों का ववकास भी हुअ है । प्राचीन वाद्यों का प्रारंवभक रूप प्राकृवतक था। ईनमें सुधार कर समयानुरूप ईनका ववकास ककया गया और लगभग सभी अधुवनक प्रचवलत वाद्य वीणा, वसतार, सरोद, संतूर, वववचत्र वीणा, कदलरुबा, तार शहनाइ, तबला अकद सभी वाद्य प्राचीन वाद्यों से ही ववकवसत हुए ।

एक ववस्तृत ऄथस में वाद्य वह हर एक वस्तु है जो ध्ववन का ईत्पादन करती है । वववशि रूप से वाद्य का तात्पयस मानव वनर्ममत संगीतात्मक वस्तु यन्त्र (वाद्य) से है, जो संगी वतक ध्ववन ईत्पन करने में सिम है ।

“वाद्य शब्द का शावब्दक ऄथस है ‘वदनीय’ या बजाने योग्य ‘यन्त्र ववशेष’ ”

श्री लालमवण वमश्र के ऄनुसार “संगीतात्मक ध्ववन तथा गवत को प्रकट करने के ईपकरण को वाद्य कहा जाता है।”1

“वाद्य – वाद् (कहना) + वणच् + यत् बाजा बजाना”2

चहदी शब्द सागर और भाषा कोष में वाद्य का ऄथस बाजा कदया गया है । परन्तु ज्ञानशब्द कोष में वाद्य का ऄथस बाजा के ऄवतररि कथन और भाषण कदया गया है ।3

ऄत: वाद्य को पररभावषत करने के वलए कहा गया है “वदतीवत वाद्यम” ऄथासत जो बजाने से बोलता है, वह वाद्य कहलाता है ।

वाद्य का प्रयोग संगीत में ककसी ऄन्य वाद्य यन्त्र की संगत के वलए या स्वतंत्र रूप से भी ककया जाता है । ऄन्य कलाएँ गायन, नृत्य, नाटक अकद सभी में वाद्यों का महत्वपूणस स्थान है । संगीत में वजतना ववस्तार वाद्य संगीत में होता है ईतना ऄन्य ककसी कला में नहीं होता । वाद्य वादन ऄपने अप में एक ऐसी कला है जो ऄन्य ककसी कला की ऄपेिा नहीं रखती है । दूसरी ऄन्य कलाएँ (गायन एवं नृत्य) आसके सहयोग के वबना ऄधूरी रहती है । वाद्य संगीत, गायन तथा नृत्य के साथ केवल सौन्दयस को ही नहीं वनखारता बवल्क ईनकी ररिता को भरने के ऄवतररि संगत के िणों में कलाकार को ववश्राम देने के साथ साथ प्रदशसन को भी संवारता है ।

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ववशाल परम्परा को देखते हुए हम कह सकते है कक नाद महासागर की भांवत भारतीय वाद्यों की संख्या भी ऄनंत है । भारतीय वाद्य संगीत में वाद्यों के वगीकरण के आवतहास को प्राचीनतम कहना ऄवतश्योवि न होगा क्योंकक वाद्यों की हज़ारों वषस प्राचीन समृि परम्परा ऄथासत वाद्यों के स्वरुप ईनकी वादन प्रकिया अकद का ववशद् ऄध्ययन हम प्राचीन ग्रंथों तथा ईस समय के प्रचवलत वाद्यों से कर सकते है । यह सभी प्राचीन ग्रन्थ आसके सािी है कक ईि काल में भी भारतीय वाद्यों का स्वरुप ऄत्यवधक पररष्कृत , वैज्ञावनक तथा समृि था ।

महर्मष भरत ने नाटक में वाद्यों को अवश्यक माना है । ईनके ऄनुसार कोइ भी वाद्य ऐसा नहीं जो नाटक के दसों भेदों में प्रयोग न हो सके । आस प्रकार नाट्यकला में भी वाद्यों का प्रयोग शुभ मंगल एवं सफलता का सूचक माना गया है । शास्त्रीय संगीत तो वबना वाद्य के होना संभव ही नहीं । प्रत्येक वाद्य ककसी न ककसी भाव का प्रतीक है । प्राचीन काल से अज तक वाद्य ककसी ऄवसर या प्रायोजक ववशेष से सम्बंवधत माना गया है । वाद्यों के सुर, वेदना-संवेदना को वयि करने में सिम होते है ।

भारतीय संगीत में तंत्री वाद्यों का ऄपना एक वववशि स्थान है । वववभन्न प्रकार के वाद्यों में से तंत्री वाद्य शायद सबसे बकढ़या ढंग से मानवीय भावनाओं को ज़ावहर कर पाते हैं । संगीत वाद्यों का प्रचलन वैकदक काल से पहले से ही रहा है लेककन आनका प्रचलन का वणसन सवसप्रथम वैकदक काल से ही ईपलब्ध होता है । “यद्यवप यह वणसन संविप्त है, परन्तु आस से यह प्रमावणत होता है कक ईि काल में चतुर्मवध वाद्यों का ववकास हो चुका था । सामगान में ताल की संगवत के वलए दुंदुवभ नामक चमसवाद्य या ऄवनि वाद्य का प्रयोग होता था । आसके ऄवतररि ऄन्य चमस वाद्यों में द्रव्य के केतुमत, वबश्रमोप्य के नाम ईपलब्ध है ।”4

ऄवनि वाद्यों की ऄपेिा तंत्री वीणाओं का ऄत्यावधक प्रचार था । काठ संवहता में कांड वीणा, ऋक में वाण का, ऋग्वेद संवहता में मरूदवीणा, ऄलाबूवीना, शीलवीणा, ककसरी और न जाने ककतनी वीणाओं का प्रयोग हुअ करता था । संभवतः वीणाओं के प्रयोगानुसार आनका नाम रखा हुअ होगा, लेककन तत्कालीन वलवखत सामग्री के अभाव से वीणाओं की पूरी जानकारी प्राप्त नहीं होती । वैकदक ग्रंथों के ईल्लेख से यह वनवित होता है कक तंत्री वाद्यों और ऄवनि वाद्यों की ऄवधकता के कारण ही ईस समय वाद्यों के वगीकरण की अवश्यकता पडी ।

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समय घन वाद्य मुख्यत: लोक संगीत में ही प्रयोग होता था । डा. श्रीधर परांजपे ने ऄपनी पुस्तक संगीत बोध में वलखा है, “वैकदक युग में तत, ववत्त, सुवषर वगस के वाद्य प्रचवलत थे ।”6

कोहल ने भी ध्ववनयों के अधार पर पंच महावाद्यों का वगीकरण ककया है । महर्मष दवतल और भरत ने आनकी संख्या चार मानी है जो तत्, ऄवनि, घन एवं सुवषर है । डा. सुदीप राय ने ऄपनी पुस्तक में अचायस ऄवभनव गुप्त के द्वारा वाद्य वगीकरण को आस प्रकार बताया है – “तत तथा सुवषर वाद्यों का प्रयोग स्वरों के वलए, ऄवनि तथा घन वाद्यों का प्रयोग ताल के वलए ककया जाता है ।”7

प्राचीन युग के ववकवसत वाद्यों के प्रकारों को देखते हुए महर्मष भरत का वगीकरण सवसथा ईवचत

तथा पयासप्त प्रतीत होता है। ईन्होंने वर्मणत ककया है –

“ततं चैवावनिं च घनं सुवशरमेव च । चतुर्मवध तु ववज्ञेयमातोद्यं लिणावन्वतम्”8

नाट्यशास्त्र में वनर्ददि तत, ऄवनि, सुवषर एवं घन वाद्यों का यही वगीकरण प्रमावणक, वैज्ञावनक, व्यवहाररक और सवसकावलक रहा है । आसी कारण तब से ले कर हज़ारों वषों बाद भी संगीत के िेत्र में आसकी मान्यता स्वीकार की जाती है ।

भारतीय संगीत परम्परा में वाद्यों का महत्व : - भारतीय शास्त्रीय संगीत में वाद्यों का ऄपना एक वववशि स्थान है । आसकी ईत्पवत और ववकास के अधार पर संगीत ग्रंथों ने प्रमावणत ककया है कक वाद्यों की परम्परा प्राचीन काल से ही चली अ रही है ।

शास्त्रीय संगीत की प्रमावणकता को वसि करने में वाद्यों का बहुत महत्व रहा है । सवसप्रथम अचायस भरत ने २२ (बाइस) श्रुवतयों को वसि करने के वलए वीणा का अधार वलया । भरत के पिात् दूसरे अचायों ने वीणा के माध्यम से सप्तक के स्वरों व श्रुवतयों को स्पि ककया तथा अधुवनक युग में प. भातखंडे जी ने भी ऄपने ग्रंथों में आसी अधार पर श्रुवत व्यवस्था की चचास की तथा वभन्न वभन्न वसिांतों का वववेचन कर वनणसय प्रस्तुत ककये, वजनकी मान्यता तब से लेकर अज तक बनी हुइ है ।

डा. प्रकाश महावडक ने भारतीय संगीत के तंत्री वाद्य में वलखा है कक “डा. लालमवण वमश्र ने प्रचवलत रूद्र वीणा में अवश्यक पररवतसन कर ‘श्रुवत वीणा’ नामक तंत्री वाद्य का वनमासण ककया । वजसके माध्यम से भरत के षड्ज तथा मध्यम ग्राम के स्वरों को स्पि समझाना संभव है ।”9 स्व. अचायस बृहस्पवत ने

“श्रुवतयों के ऄंतराल की ऄसमानता को वसि करने के वलए ‘श्रुवत दपसण’ नामक वाद्य का वनमासण ककया ।” 10

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प्रयोग ववस्तार की दृवि से तंत्री वाद्यों का ऄपेिाकृत अवधक महत्व है । भले ही आन में शब्दों का अभाव हो ककन्तु जहाँ तक स्वर और लय एवं संगीतात्मक वातावरण बनाए रखने की ऄपेिा की जाती है वहां वाद्य ऄन्य ककसी कला का सहारा वलए वबना ही श्रोताओं को अनन्द की ऄनुभूवत करने में सिम होते है । ऄतएव तंत्री वाद्यों में प्रयोग ववस्तार ऄपेिाकृत ऄवधक है ।

संगीत का कोइ भी ऄंग वबना वाद्यों की सहायता से पूणस नहीं हो सकता । गायन में तानपूरा, सारंगी और स्वरमंडल या तबला की ऄपेिा रहती है तो नृत्य में भी नगमे के वलए सारंगी अकद वाद्यों का प्रयोग गायन ऄथवा नृत्य कला में ऄपना महत्वपूणस स्थान रखते है ।

वाद्यों को महत्वपूणस बनाने का कायस शास्त्रीय संगीत की वववेचना में ईनका सहयोग, यकद यह कहा जाये कक वाद्य न होते तो शास्त्रीय संगीत की कोइ परम्परा न होती और यकद होती तो ईसकी वववेचना का कोइ ईपाए न होता तो कोइ ऄवतश्योवि न होगी । स्वरोत्पवत, स्वरस्थान का वस्थरीकरण, स्वरान्त्राल्यों की नाप जोख अकद कायस वबना तंत्री वाद्यों के ऄसंभव थे।11 कहा जाता है की “ वाद्यों के ववकास के आवतहास में

तंत्री वाद्य का वजतना अवधक ववकास हुअ है ईतना ऄन्य ककसी वाद्य का नहीं ।”12 अज शास्त्रीय संगीत का

वजतना ऄवधक ववस्तार और वैज्ञावनक पाठ पठन चल रहा है, ईसका मूल स्रोत तंत्री वाद्य (वीणाएं) ही रहे है । अज के वैज्ञावनक युग में स्वरों के नाप जोख के वलए ईनकी ट्यूचनग के वलए मोनोकाडस, ट्यूचनग फ ाकस अकद ईपकरणों का प्रयोग ककया जा रहा है । तत्पिात ईसके सैिांवतक पररणाम वनकाले जाते है । परन्तु प्राचीन काल में न तो कोइ प्रयोगशाला थी, न ही वैज्ञावनक ईपकरण । ईनके पास केवल कणस या कंठ जैसे प्राकृवतक ईपकरण थे, वजसके अधार पर ईन्होंने संगीत के जो सैिांवतक वनष्कषस कदए वह अज तक

प्रामावणक समझे जाते है । आन वसिांतों का सही ववश्लेषण करने का एक मात्र अधार तंत्री वाद्य वीणा ही था । तात्पयस यह है की शास्त्रीय ववश्लेषण या स्वतंत्र वाद्य वादन हो तंत्री वाद्यों की ईपादेयता न केवल अवश्यक है ऄवपतु ऄपररहायस है।

परन्तु अज के आस वैज्ञावनक युग में वडवजटल वाद्य यन्त्र का चलन कुछ ज्यादा ही देखने को वमलता है । कलाकार ऄपने मंच प्रदशसन के समय वडवजटल तानपुरा या नगमा प्लेयर का ऄवधक आस्तेमाल करते है । ररकार्मडग स्टूवडयो में भी कम्प्यूटर द्वारा वबना ककसी वाद्य यन्त्र की सहायता से ररकार्मडग की जा रही है ।

keyboard के प्रयोग से हम लगभग हर वाद्य यन्त्र की ध्ववन को प्राप्त कर सकते है । Digital Pad में अज

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अप वाद्य यंत्रो की ध्ववनयों के साथ नए नए प्रयोग तो कर सकते है परन्तु जो अनंद वाद्य की ऄसली ध्ववन में है वह बात कृवत्रम ध्ववन में नहीं वमल सकती ।

अज अप जब भी ररयाज़ करने बैठे तो ऄपने साथ वडवजटल तानपुरा या वडवजटल तबला लगा कर ररयाज़ कर सकते है परन्तु मंच प्रदशसन के समय अप वडवजटल तबला का प्रयोग नहीं कर सकते । जो वाद वववाद अप तबला वादक के साथ समुख कर सकते है वह वडवजटल तबला से मुमककन नहीं हो सकती ।

ऄत: पररवतसनशीलता प्रकृवत का वनयम है वजसे हम चाह कर भी नहीं बदल सकते । जो तकनीक अज हम देख रहे है वह तकनीक कुछ दशकों पहले तक संभव नहीं थी और अने वाले समय में क्या क्या नइ तकनीकें ववकवसत होंगी आसका हम ऄंदाजा भी नहीं लगा सकते ।

संदभस सूची

1डा. लालमवण वमश्र, भारतीय संगीत के वाद्य, पृि 5

2रामचंद्र वमास, मानक चहदी कोष, खंड पांच, पृि 34

3डा. ऄशोक कुमार, संगीत और संवाद, पृि 109

4डा. रेखा सेठ, भारतीय तंत्री वाद्यों की ईत्पवत एवं महत्व, पृि 53

5डा. लालमवण वमश्र, भारतीय संगीत के वाद्य, पृि 56

6डा. शरदचंद्र श्रीधर परांजपे, संगीत बोध, पृि 132

7डा. सुदीप राय,जहान ऐ वसतार, पृि 20

8अचायस भरत नाट्यशास्त्र, पं.केदारनाथ द्वारा सम्पाकदत काव्यमाला 42 में से ईद्धृत ऄध्याय 28, श्लोक, पृि 430

9डा. प्रकाश महावडक, भारतीय संगीत के तंत्री वाद्य, पृि 3

10डा. प्रकाश महावडक, भारतीय संगीत के तंत्री वाद्य, पृि 234

11डा. लालमवण वमश्र, भारतीय संगीत के वाद्य, पृि 40

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